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14 फरबरी को प्रेम दिवस के दिन कई देशों की महिलाओं ने महिला हिंसा के खिलाफ ‘‘वन बिलियन राइजिंग-स्ट्राइक, डंास और राइज’’ की थीम पर सड़क और चोराहों पर आना मंजूर किया। इस दिन हर उम्र की महिलाओं और साथ में एक बड़ी संख्या में पुरुषों ने महिला हिंसा के खिलाफ आवाज बुलंद की। ऐसा लगा कि एक इंवेट की सी शक्ल में आयोजित ये पूरा दिन महिला संगठनों के सामूहिक प्रयासों के परिणाम स्वरूप या फिर महिलाओं की स्वयं की जागरुकता के कारण महिला स्वर के अभिव्यक्त होने का माध्यम बना और कई मायनों सफल होता भी प्रतीत हुआ। कई देषों में इस आयोजन की गंूज थी, यह आयोजन महिला ंिहसा के खिलाफ 1 अरब औरतों की आवाज की बात कर रहा था तो यह आयोजन भारत के लिये और अधिक प्रासंगिक लगा क्योंकि अभी दिल्ली में हैवानियत की षिकार ‘‘निर्भया’’ के जख्म ताजा हैं और उन पर किसी भी तरह का मरहम भी नहीं लगा है। ऐसे में स्वभाविक था कि आयोजन के बहाने कई निर्भयाएं जो अभी तक घर में थीं आज सड़क पर आई और नाचीं। बहुत शोर हुआ, पर सवाल बस यही है कि यह नाच खुद पर गुस्सा था, अपने दर्द की अभिव्यक्ति थी या फिर हर कदम ताल में, हर संगीत की धुन में, हर नारे में, हर थिरकन में और घूरती आंख में आंख डालकर झांक लेने की चाहत वाली हर नजर में खामोषी टूट रही थी ? यदि खामोषी टूटने की ये शुरुआत भी थी तो इसका स्वागत होना चाहिए।
महिला अधिकारों की बात करने वाली कमला भसीन ने कुछ इस तरह के विचार व्यक्त किये कि वे अपनी साथी महिला व पुरुषों के साथ प्रेम दिवस के दिन प्रेम की बात करने के लिये इकट्ठा हुई हैं। प्रेम भी ऐसा जो समानता पर आधारित हो और इंसाफ पर आधारित हो। पितृसत्ता और मातृसत्ता दोनों को समाज को दुष्मन बताने वाली कमला भसीन बहुत स्पष्टतौर पर समानता की बात करती है और कहती हैं कि इस आयोजन को महिला की खामोषी तोड़ने की शुरुआत और अंत दोनों नहीं कहा जा सकता क्यांेकि उन्होंने स्वयं ये खामोषी आज नहीं कई साल पहले तोड़ी थी और अभी भी बहुत सी ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें ये खामोषी तोड़नी है। तब इस दिन की और इस आयोजन की क्या प्रासंगिकता रही ? आयोजन में भाग लेने वाली महिला सामाजिक कार्यकर्ता कल्पना मैनी के विचार कुछ तसल्ली देते हैं। उनके अनुसार हर उम्र की महिलाएं इस आयोजन में उस शरीर को भूलके नाचीं जिसे उन्हें हमेषा छुपाना होता है, जिसके कारण उन्हें कई बार डरना होता है या फिर जिसको घूरती नजरें उनकी नजरें झुका देती हैं। उपलब्धि यह थी कि जहां भी आयोजन हुए, जहां भी ये जुलूस निकले या जमावड़े हुए वहां एक बड़ी तादाद पुरुषों की थी जो दर्षक भी थे और आयोजन में सहयोगी भी, परंतु महिलाओं ने उनकी उपस्थिति से भय महसूस नहीं किया, शर्म महसूस नहीं की। वे खुलके बोलीं और खुलके नाचीं। शायद यही इस आयोजन का उद्देष्य भी कि एक दिन अपने लिये मांगो मत बल्कि छीन लो और उस दिन स्वयं अपना मंच बनाओ अपनी बात कहने के लिये, वो मंच बना भी और बातें भी हुईं।
मीडिया पर इस आयोजन के दृष्य देखकर सबकुछ सुनियोजित सा लगा और यदि कवरेज को देखें तो ऐसा भी लगा कि यह आयोजन एक विषेष वर्ग को छू पाया। इस संदेह को जागोरी संस्था की सदस्य कुलसूम रषीद यह कहकर खारिज करती हैं कि यह आयोजन छोटे शहरों में भी उतना ही सफल रहा है परंतु मीडिया की नजर शायद वहां नहीं पहंुची। सवाल आयोजन की सफलता और असफलता का है भी नहीं ? सवाल यदि है तो यही है कि इस आयोजन में भाग लेने वाली महिलाएं और पुरुष अपनी इन आंदोलनकारी और जागरुक भावनाओं को अपने घरों तक और अपने समाज तक ले जा पाएंगे। क्योंकि एक समूह की अनुकूल परिस्थिति में अपने सवालों को रखना, अपने विचारों को व्यक्त करना और घर और समाज में विपरीत परिस्थिति में चुप्पी तोड़ना दो अलग बातें हैं। इसी दिन के संदर्भ में अनुराधा शंकर ने अपने साथ बचपन में हुए दुर्वव्यवहार की बात स्वीकारी। उन्होंने अपनी एक लम्बी उम्र चुप्पी मंे गुजारी,,,जब अनुष्का शंकर जैसी महिला को चुप्पी तोड़ने में एक अरसा लग गया तो फिर आप समाज के उस वर्ग से क्या उम्मीद करेंगे जहां महिलाएं घूंघट में रहती हैं ?
देवेश शर्मा
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